बुक्सा जनजाति वह समाज है जिसने उत्तराखंड के तराई क्षेत्र को रहने लायक बनाया और इसी वजह से बुक्सा समाज को उत्तराखंड का मूल निवासी कहते हैं जैसा कि आपको ज्ञात है बुक्सा समाज के पुरुषों हो या महिला हो इनके अंदर प्रतिभा की कोई कमी नहीं है बल्कि इनके अंदर कला कूट-कूट कर भरी हुई है खासकर महिलाओं में ।
प्राचीन काल में बुक्सा समाज की महिलाएं अपने दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली हर वस्तुओं को अपने हाथों से ही बना लेती थी अनाज रखने के लिए बुक्सा समाज की महिलाएं मिट्टी की कुठिया कुठले आदि बनाती थी और खाली समय में सुंदर व मनमोहक ढल्लैया,मानो गमला टोकरी मुंद्रा,चटाई,खटिया आदि बनाना और त्योहारों के समय में अपने घर को गोबर से लीप कर आंगन में कच्चे घरों की दीवारों पर चिन्ना फारना (चित्रकारी) करना घर में डिंडी (मिट्टी की दीवार ) मिट्टी के चूल्हे आदि बनाना अनेकों कलाओं में निपुण हैं ये जो कला है पुस्तैनी कला है। साथ में बुक्सा पुरुष भी चारपाई,हल जुआ पाओ कुर्सी मेज तक्खत आदि स्वयं ही बना लेते थे। और महिला पुरुष बहुत ही मेहनती थे । गांव व आसपास की महिलाएं जब एक साथ बैठकर मिट्टी का दिया जला कर ढल्लैया बनाते बनाते सुंदर सुंदर भावुक लोक गीत व कस्ता लोक कहानी सुनाती थी और बहुत ही प्रेम भाव से एक साथ रहती थी। इस तरह से खाली समय का सद उपयोग करती थी कभी कभी तो ढल्लैया बिनते बिनते पूरी रात निकल आती थी बहुत मज़ा आता था उन्हें ढल्लैया बिनने में। बुक्साड़ी भाषा में दीदी को अज्जी और छोटी बच्ची को अल्लो कहते हैं। बड़े भाई को अददा दददा और छोटे बच्चे को अऊआ पापा को बाबुल,बाबू,अब्बा व मम्मी को अईओ ,चाचा को चच्चू कक्का, चाची को काकी बुआ को फुफ्फो ससूर को पधान जी और सास को बुढ़िया दादा को दादों कहते हैं ये प्यारे व सम्मानित वाचक शब्द है पहले एक दूसरे का नाम नहीं लेते थे बल्कि रिश्तो से बुलाते थे।
जय हो नारी शक्ति की जय हो देव भूमि उत्तराखंड की।